18 जून 2016

*ग़ज़ल* : *सपोला है वो आस्तीन में लिपटने आया* !!



हुज़ूर के चैंबर से इन्कलाब दहकने आया
गुलाब की क्यारियों में इत्र महकने आया

न था वक्त, मिला भी तो तुम न मिले –
कुछ यादों के लिफ़ाफ़े थे, पटकने आया !

अब तो बस मौत तेरा इंतज़ार है मुझको
आख़िरी लौ की मानिंद चमकने आया !!

यूँ तो उससे भी कह देता रूबरू उसके
लुफ्त आए है  क्या ? चुगलियों में समझने आया !!

वो मेरे पास मुस्कुराके आ रहा देखो
सपोला है वो आस्तीन में बसने आया !!
                          *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*



  


4 टिप्‍पणियां:

कँवल ताल में एक अकेला संबंधों की रास खोजता !
आज त्राण फैलाके अपने ,तिनके-तिनके पास रोकता !!
बहता दरिया चुहलबाज़ सा, तिनका तिनका छिना कँवल से !
दौड़ लगा देता है पागल कभी त्राण-मृणाल मसल के !
सबका यूं वो प्रिय सरोज है , उसे दर्द क्या कौन सोचता !!